अँधेरे में डूबी हुई सलाखे उनके पीछे से बाहर जाने की आस में देखते हुए चेहरे| जेल के बारे में सुन कर एसी ही कुछ कल्पना की जाती है|
पर अगर आपसे कहे की जैसा फिल्मो में दिखाया जाता है एसा कुछ नहीं होता जेल में तो क्या आप यकीन करेंगे| क्योंकि कैदियों को जेल में इसलिए रखा जाता है ताकि उनके अन्दर सुधार लाया जा सके और उन्हें समाज में रहने के काबिल बनाया जा सके|
आज के समय अधिकांश जेलों में बंदियों को वक्त और जिम्मेदारी का एहसास घंटे की गूंज पर ही होता है। हर साठ मिनट बाद बजने वाले घंटे उन्हें समय बताते हैं तो ‘पचासा’ की एकमुश्त गूंज उन्हें उनकी जिम्मेदारी बताती है। सुबह से शाम तक चार बार पचासा गूंजती है, जिनका हर बार उद्देश्य अलग-अलग होता है।
पहली पचासा –
पहली पचासा सुबह पांच बजे गूंजती है।
इसका अर्थ कैदियों को तुरंत जाग जाना चाहिए और डेली रुटीन से फ्री होकर जेल की प्रार्थना सभा में एकत्रित करने की सूचना देना है।
प्राथना सभा से बंदियों को काम पर भेजा जाता है।
दूसरी पचासा –
दूसरी पचासा 11 बजे बजती है| इसका सीधा अर्थ यह होता है की कैदियों को काम से वापिस लौटकर खाना बंटने वाली जगह पर पहुंचना है|
तीसरी पचासा –
तीसरी पचासा दोपहर में एक बजे गूंजती है| इसका अर्थ होता है की कैदियों को अपने हिस्से का काम तेज़ी से करना है।
चौथी और अंतिम पचासा
यह शाम को पांच बजे गूंजती है जिसका मतलब है कि हर कैदी और बंधी काम छोड़कर वापस बैरक के करीब आ जाएं। रात का खाना लेकर बैरक में वापस आ जाएं।
वैसे पचासा गूंजने के साथ ही जेल कर्मचारियों का काम भी बढ़ जाता है क्योंकि उन्हें हर पचासा के साथ कैदियों-बंदियों की गिनती करनी होती हैं।
अब बात करते है रिहाई पर –
शाम पांच बजे की अंतिम पचासा बजने तक जेल को जिनके रिहाई का आदेश मिल चुका होता है, उनकी ही रिहाई उस दिन संभव हो पाती है।
अंतिम पचासा यानी शाम पांच बजे के बाद आए रिहाई आदेश वाले कैदी अगले दिन जेल से बाहर आ पाते हैं।
पचासा के अलावा एक घंटी और बजती है जिसे पगली घंटी कहा जाता है
जब जेल का घंटा बेतुके ढंग से बजने लग जाये तो उसे पगली घंटी कहते है| इसका मतलब खतरे या आपातकाल की स्थिति है।
कैदी भागने या इस तरह की कोशिश करने पर, जेल में संघर्ष होने या कोई हादसा हो जाने पर खतरे की घंटी के तौर पर इसका इस्तेमाल किया जाता है। इस दौरान कैदियों-बंदियों को प्रार्थना सभा वाले ग्राउंड में पहुंचकर सावधान मुद्रा में खड़ा होना होता है।
पर कैदियों की दिनचर्या किस तरह से बनायीं गयी? क्या किसी डॉक्टर ने यह बनायीं या जेल के अधिकारीयों ने ? अगर आपके दिमाग में भी यह सवाल उठ रहा है तो आपको बता दूँ कैदियों की दिनचर्या वैसी होती है जैसी शास्त्रो में पूर्ण पुरुष की दिनचर्या बताइ गई है-
इसके नियम निम्न है –
सुबह 5 बजे जागना फिर बिस्तर और कमरा खुद साफ करना|
डेली रुटीन से फ्री हो कर एक्सरसाइज करना , भोजन बनाने में मदद करना, शराब और मादक पदार्थो का सेवन नहीं करना, हर रोज कुछ नया सीखना और पढना| सूर्यास्त के कुछ समय बाद सो जाना|
पर जेल में बजने वाला घंटा कहा बनता है अगर आप भी यह जानना चाहते हो तो आपको बता दूँ अंगरेजों के जमाने से जेलों का काम बनारसी घंटा से ही चलता है। यानि जेल का घंटा आज भी बनारस से ही बन कर आता है |
इस घंटे का वजन दस किलो से ज्यादा होता है।
पर जैसे जैसे जेलों में आधुनिकीकरण हो रहा है। उसी तरह घंटे का भी आधुनिकीकरण किया जा रहा है। कई जेलों में घंटे की जगह हूटर लगाए जा चुके हैं।
अब बात करते है जेल में कैदियों को क्या मिलता है और क्या उनके लिए पूरी तरह से बैन है
तो जेल में कैदियों को दो कंबल, एक थाली, एक मग, सजायाफ्ता के लिए सफेद हॉफ पैंट, शर्ट, कलाई घड़ी, नकदी, गहने, माचिस, नुकीला पदार्थ, नशे का सामान ये सब पूरी तरह बैन है|
अब एक बात का बहुत से लोगों को पता नहीं होता की कैदी को उसका नंबर कब दिया जाता है?
तो चलिए अब जानते है कैदियों को उनका नंबर कब मिलता है –
वैसे तो शुरुआत में जब एक नया कैदी आता है उस वक्त उसे नंबर नहीं देते अगर उसकी सजा लम्बे दिन की होती है तो ही उन्हें एक नंबर दिया जाता है जिसके बाद उस नंबर से ही उस कैदी की पहचान होती है|
जैसे फिल्म कालिया में जेल के अन्दर कैदी नंबर 602 से अमिताभ की पहचान होती है| अगर कोई बहुत बड़ा क्राइम करके आता है या फिर उसे काफी ज्यादा दिनो तक की सजा होती है। तभी उसे उसका नंबर दिया जाता है
आपकी जानकारी के लिए बता दें की 10 से 15 दिन या फिर कुछ दिन की सजा में आने वाले कैदियों को कोई भी नंबर नहीं मिलता है।
अब बात करते है कैदी के खाने पर खर्च कितना आता है?-
तो आपको बता दें की जेल में एक कैदी के खाने के ऊपर औसतन 1 दिन में लगभग 52- 70 रू का खर्च आता है। यह सब उस जेल के मेन्यु के हिसाब से तय किया जाता है। यानि जेल में क्या खाना बनेगा इस पर कैदी के खाने का खर्च तय होता है|
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